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Upadesh Saar-3 / उपदेश सार-३

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उपदेश सार के तीसरे प्रवचन में ग्रन्थ के दूसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि कर्म अत्यंत समर्थ होता है। अनेकानेक लौकिक आवश्यकताएं कर्म से ही प्राप्त हो सकती हैं, इसलिए कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म केवल अपनी लौकिक जरूरतों के लिए नहीं होता है, लेकिन एक कर्म का अत्यंत महान और दिव्य सामर्थ्य के लिए भी होता है, जिसे विरले लोग ही जानते हैं। यह सामर्थ्य होता है - अपने मन को शान्त, सुन्दर, निर्मल और बुद्धिमान बना देने का। यह तो सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। इसलिए कर्म ऐसे ही लक्ष्य को रख कर किसी भी क्षेत्र में काम अवश्य करना चाहिए। कर्म हमें बांध भी सकता है और मुक्ति के लिए पात्र भी बना सकता है। वो बांधता तभी है जब लक्ष्य किसी नश्वर और लौकिक वस्तुओं के होते हैं। और यह ही कर्म जब ईश्वर के निमित्त बनकर उनकी ही प्रसन्नता के लिए करा जाता है - तब कर्म हमें समत्व से युक्त कर देता है और शनै-शनै मन शांत और सात्त्विक होने लगता है, अर्थात मुक्ति के लिए, आत्मा-ज्ञान के लिए पात्र बनने लगता है।

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उपदेश सार के तीसरे प्रवचन में ग्रन्थ के दूसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि कर्म अत्यंत समर्थ होता है। अनेकानेक लौकिक आवश्यकताएं कर्म से ही प्राप्त हो सकती हैं, इसलिए कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म केवल अपनी लौकिक जरूरतों के लिए नहीं होता है, लेकिन एक कर्म का अत्यंत महान और दिव्य सामर्थ्य के लिए भी होता है, जिसे विरले लोग ही जानते हैं। यह सामर्थ्य होता है - अपने मन को शान्त, सुन्दर, निर्मल और बुद्धिमान बना देने का। यह तो सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। इसलिए कर्म ऐसे ही लक्ष्य को रख कर किसी भी क्षेत्र में काम अवश्य करना चाहिए। कर्म हमें बांध भी सकता है और मुक्ति के लिए पात्र भी बना सकता है। वो बांधता तभी है जब लक्ष्य किसी नश्वर और लौकिक वस्तुओं के होते हैं। और यह ही कर्म जब ईश्वर के निमित्त बनकर उनकी ही प्रसन्नता के लिए करा जाता है - तब कर्म हमें समत्व से युक्त कर देता है और शनै-शनै मन शांत और सात्त्विक होने लगता है, अर्थात मुक्ति के लिए, आत्मा-ज्ञान के लिए पात्र बनने लगता है।

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